वरिष्ठ पत्रकार राजेश शर्मा की स्पेशल रिपोर्ट.अमृतसर।
निकाय चुनाव को लेकर राज्य के 5 शहरों में चुनाव अखाड़ा सज चुका है। हर पार्टी ने टिकट आवंटन को लेकर कई प्रकार की समितियों को गठित किया है। लेकिन, सबसे बड़ा चर्चा का विषय, इस समय आम आदमी पार्टी (आप) का चल रहा है, अफवाह का बाजार गर्म है कि डिफाल्टर को टिकट आवंटन में आम आदमी पार्टी (आप) इस दौड़ में सबसे आगे चल रही है। सूची में नाम सिर्फ तो सिर्फ पार्टी फंड देने वालों का डाला जा रहा है। अटकलें इस बात की भी लगाई जा रही है कि पार्टी इस बार डिफाल्टर (आपराधिक गतिविधियों में लिप्त) को टिकट आवंटन करने में बिल्कुल ही नहीं गुरेज कर रही है। हालांकि, सत्ता में आने के लिए ईमानदार तथा बेबाक पार्टी होने का दावा किया गया था।इससे तो यह बात साफ साबित हो जाती है कि पार्टी अपनी साख बचाने में खरी नहीं उतर रही है। सिर्फ तो सिर्फ सत्ता को बचाने के लिए हर प्रकार हथकंडा अपना रही है।
पार्टी से जुड़े पुराने वर्कर इस बात को लेकर नाराज चल रहे है क्योंकि उनके खून-पसीने से पार्टी को सत्ता में पहुंचाने में जो कोशिशें लगी, अब एक-एक करके उस पर पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने पानी फेरना आरंभ कर दिया। खैर नाराज़गी वाजिब भी है, क्योंकि, डंडे से लेकर पानी की बौछार झेलने वाले वर्कर आज तक इन जख्मों को नहीं भूल सकते है। इनकी प्रताड़ना तो तब दिल्ली दरबार में भी गूंजी थी। हैरान करने वाली बात तो यह कि पार्टी ने तब उन्हें शाबाशी देकर उन्हें भविष्य के नए सरताज का खिताब भी दिया था। अब नजरअंदाज किया जाना इस बात की ओर साफ इशारा करता है कि उनके जख्मों पर नमक छिड़का जा रहा है। एक सवाल यह भी खड़ा हो जाता है कि डिफाल्टर को टिकट देना पार्टी या फिर नेताओं की क्या ऐसी मजबूरी है जो उन पर दांव खेल रही है। पार्टी के लिए सबसे बड़ी छवि होती है, उससे ऊपर कोई नहीं होता है।
विधायकों के घर बाहर इन दिनों मेला लगा है। मेले में बारातियों की संख्या इतनी अधिक हो चुकी है कि इन्हें झेल पाना भी अब मुश्किल दिखाई दे पा रहा है। चर्चा, इस बात की भी है कि कुछ विधायक तो अपना आवास छोड़ कर बाहर भाग रहे है। टिकट पाने वाले इस उत्साह में बैठे है कि कब भीतर से आवाज आएगी कि उनकी टिकट पक्की हो चुकी है। चेहरों में साफ तौर पर परेशानी दिखाई दे रही है। ताजुब की बात है कि आपराधिक छवि वाले का चेहरा खूब खिलखिला रहा है, क्योंकि, उन्होंने तो पैसे से सबकी मुट्ठी को गर्म कर दिया है। पार्टी को यह भी पता चला है कि चाहे वे लोग खराब है, लेकिन, उन्हें इस बात की भी आशा है कि उनके मैदान में उतर जाने से पार्टी का जीत प्रतिशत भी बढ़ जाएगा। क्योंकि, वर्तमान बाहुबलियों का जमाना है। एक प्रकार से यूपी की राजनीति अब पंजाब में शुरुआत हो चुकी है। इसका आरंभ आप से हो रहा है। कितने कारगर साबित हो पाते है, यह तो भविष्य की राजनीति ही तय करेंगी। फिलहाल, शहर में तो घमासान है।
राहुल गांधी की कांग्रेस का भी कुछ ऐसा ही हाल है, वहां से भी बाहुबली नेताओं को टिकट पाने के लिए जोड़ तोड़ की राजनीति का काम आरंभ हो चुका है। टकसाली कांग्रेसी तो एक मंच पर फैसला कर चुके है कि अगर उनके साथ धक्का हुआ तो अंजाम काफी बुरा होगा। क्योंकि, हमें लोगों का पूरा पूरा साथ है। आजाद प्रत्याशी खड़े होने की भी चेतावनी दे दी गई। दिल्ली में यह चिंता का विषय बन चुका है कि आपस में फूट को कैसे खत्म किया जाए। क्योंकि, उप चुनाव की हार को अभी तक पार्टी भूला नहीं पाई कि अब इस चिंता ने राहुल के पसीने छुटा दिए है। अटकलों का बाजार, इस मतभेद को दूर करने के लिए पार्टी ने एक वरिष्ठ नेताओं की टीम गठित की जो आपसी मतभेद को दूर कर, आपस में मिलजुल चुनाव लड़ने का तरीका बताएंगी।
भाजपा इस बार नई रणनीति से निकाय चुनाव लड़ने का खेल बना रहा है। पिच पर उन खिलाड़ियों को अवसर देना चाहता है जो खुद के दम पर जीत हासिल करने का गुर जानता हों। इसके लिए अब से रणनीति पर काम शुरु हो चुका है। चर्चा इस बात की भी चल रही है कि भाजपा की टिकट पर कोई नेता चुनावी मैदान में लड़ने को बिल्कुल ही नहीं तैयार है। क्योंकि, हर किसी को अंदाजा इस बात का लगने लगा है कि भाजपा की फिलहाल पंजाब में लहर दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रही है, इसलिए वे चुनाव लड़ने से पीछे हटना बेहतर समझ रहे है। पार्टी किन-किन पर दांव खेले, यह उसके लिए सबसे बड़ी मजबूरी बन चुकी है। अब इंतजार उनका किया जा रहा है जो अन्य पार्टी छोड़कर भाजपा में आने के इच्छुक है, ताकि, उस पर पार्टी दांव खेल सके। यह रणनीति पार्टी के लिए कितनी कारगर साबित होती है, उसका फैसला तो चुनाव नतीजों में जनता ही तय करेंगी।
पहली बार निकाय चुनाव में शिअद कदम रखने जा रही है। पूर्व में वह भाजपा गठबंधन के साथ चुनाव लड़ती आई। इस बार उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी कि कैसे लोगों का दिल जीतकर पुरानी साख को बचाया जा सके। बेअदबी से लेकर कई ऐसे जख्म है, जिन पर पार्टी ने कभी मरहम लगाने का काम तक नहीं किया, इसलिए, हर चुनाव में जनता की तरफ से उन्हें हार का तोहफा मिल रहा है। ऐसा नहीं है कि अपनी छवि को सुधारने के लिए शिअद ने कई बार लोगों से भूल की माफी भी मांगी, लेकिन, यह भूल शायद लोगों के जख्म को भर नहीं पाई। खैर, जीत की रणनीति को लेकर पार्टी अलग-अलग वर्करों तथा पदाधिकारियों से विमर्श कर रही है, शायद उन्हें लगता है कि उनका सुझाव इस चुनाव में काम आ जाए। ,चूंकि , चुनाव शहरी मतदाता को लेकर है। शहर में शिअद की पकड़ इतनी मजबूत भी नहीं है, इसलिए इस बार हिंदू चेहरों को मैदान में अधिक से अधिक उतारा जा सकता है। खैर फैसला तो जनता ने सुनाना है, इसके लिए सबको बेसब्री से 21 को इंतजार है।